कविता: मेरे बचपन का गाँव
सारांश:
मेरी उम्र के अधिकतर लोगों का बचपन
गाँव में ही बीता है। हमारे गाँव में तो
Electricity भी तब आई जब मैं 11th में
पढ़ रहा था। घर में ना रेडियो ना TV
4 km स्कूल भी पैदल जाते थे। गाँव
का वो खुशहाल जीवन आज़ के इस
Concrete के जंगल से बहुत अच्छा था।
सच मानिये, वो बचपन की जिन्दगी बहुत
याद आती है। इस कविता की आख़िरी
चन्द लाइनें लिखते समय तो आँखों से
पानी भी टपक गया। तो प्रस्तुत है:
" मेरे बचपन का गाँव"
पढ़िए और खो जाइए अपने अपने बचपन
के गाँव में।
राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
****************************** ****
मेरे बचपन का गाँव
गाँव का क्या कहना जी,
गाँव की बात होती है निराली।
तन के साथ साथ,
मन को भी खुशियाँ देने वाली।
------------------------------ -----------------------
वहाँ सब होता निश्छल।
शहर में होता छल ही छल।
वहाँ बेगाने भी होते अपने।
यहाँ अपने भी नहीं रहते अपने।
वहाँ की मिट्टी देती खुशबू।
यहाँ की हवा में भी बदबू।
पर अब, बदल गया जी गाँव,
वो पहले जैसा नही रहा।
वहाँ भी पहुँच गई शहरी हवा।
गाँव के लोग हो गये श्याने।
अक्ल भी लग गई उनको आने।
मिट्टी के घर भी लोग भूले।
नहीं रहे वहाँ पेड़ों पर झूले।
बच्चे पढ़ने जाते शहर।
गाँव में ले आते वहां का ज़हर।
------------------------------ -----------------------
बूढ़ा बाप, बचे खुचे खेतों में जाता।
किसी तरह, पेट की चक्की चलाता।
बेटा हो गया शहरी बाबू,
अच्छा बूरा भी समझ नहीं पाता।
------------------------------ -----------------------
मुझे याद आता है जी अपना,
वो बचपन का गाँव पुराना।
वो नहर में खूब नहाना,
वो स्कूल में झाड़ू लगाना।
वो जयप्रकाश के बाग़,
बागों से अमरुद तोड़ना।
वो छुपम छुपाई का खेल,
वो खेतों से मूली चुराना।
वो गुल्ली डंडे का खेल,
वो कंचे खेलने जाना।
वो सामने वाला जीतु,
उसका वो कहानियाँ सुनाना।
वो पीपल के पेड़ का दीपू,
उससे वो बाल कटवाना।
वो मई की सड़ी गर्मी,
बरामदे में चारपाई बिछाना।
उस पर वो ताश की मंडली,
दोस्सर, स्वीप का खेलना।
वो कमरे पे टीन की छत,
उसपे बारिश का पड़ना।
------------------------------ -----------------------
वो गाँव मेरा, कहाँ खो गया,
वो शहर जैसा, क्यों हो गया।
कोई लौटा दो मेरा वो गाँव,
बचपन में ले चलो मुझे।
मेरा बीत गया जी समय,
जिंदगी की हो गई शाम।
थोड़ा ही बचा है, समय,
ये क्या.... हो गया।
भगवान् क्षमा करे मुझे,
क्यों रो रहा हूँ मैं।
ये मैंने क्या खो दिया,
मैं तो लुट गया भाई।
सच में, बदल गया है गाँव,
ये है, कड़वी सच्चाई।
****************************** ****
राजेन्द्र को उसका बचपन,
याद बहुत ही आता।
वो बहुत ही है, दुःखी,
उससे और नहीं लिखा जाता।
शब्द अब, खुद ही,
अपने आप, ले लें विराम।
वो तो लेगा, सिर्फ, राम का नाम।
जै श्रीराम, जै श्रीराम, जै जै श्रीराम।
****************************** ****
कविता: राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
सारांश:
मेरी उम्र के अधिकतर लोगों का बचपन
गाँव में ही बीता है। हमारे गाँव में तो
Electricity भी तब आई जब मैं 11th में
पढ़ रहा था। घर में ना रेडियो ना TV
4 km स्कूल भी पैदल जाते थे। गाँव
का वो खुशहाल जीवन आज़ के इस
Concrete के जंगल से बहुत अच्छा था।
सच मानिये, वो बचपन की जिन्दगी बहुत
याद आती है। इस कविता की आख़िरी
चन्द लाइनें लिखते समय तो आँखों से
पानी भी टपक गया। तो प्रस्तुत है:
" मेरे बचपन का गाँव"
पढ़िए और खो जाइए अपने अपने बचपन
के गाँव में।
राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
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मेरे बचपन का गाँव
गाँव का क्या कहना जी,
गाँव की बात होती है निराली।
तन के साथ साथ,
मन को भी खुशियाँ देने वाली।
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वहाँ सब होता निश्छल।
शहर में होता छल ही छल।
वहाँ बेगाने भी होते अपने।
यहाँ अपने भी नहीं रहते अपने।
वहाँ की मिट्टी देती खुशबू।
यहाँ की हवा में भी बदबू।
पर अब, बदल गया जी गाँव,
वो पहले जैसा नही रहा।
वहाँ भी पहुँच गई शहरी हवा।
गाँव के लोग हो गये श्याने।
अक्ल भी लग गई उनको आने।
मिट्टी के घर भी लोग भूले।
नहीं रहे वहाँ पेड़ों पर झूले।
बच्चे पढ़ने जाते शहर।
गाँव में ले आते वहां का ज़हर।
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बूढ़ा बाप, बचे खुचे खेतों में जाता।
किसी तरह, पेट की चक्की चलाता।
बेटा हो गया शहरी बाबू,
अच्छा बूरा भी समझ नहीं पाता।
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मुझे याद आता है जी अपना,
वो बचपन का गाँव पुराना।
वो नहर में खूब नहाना,
वो स्कूल में झाड़ू लगाना।
वो जयप्रकाश के बाग़,
बागों से अमरुद तोड़ना।
वो छुपम छुपाई का खेल,
वो खेतों से मूली चुराना।
वो गुल्ली डंडे का खेल,
वो कंचे खेलने जाना।
वो सामने वाला जीतु,
उसका वो कहानियाँ सुनाना।
वो पीपल के पेड़ का दीपू,
उससे वो बाल कटवाना।
वो मई की सड़ी गर्मी,
बरामदे में चारपाई बिछाना।
उस पर वो ताश की मंडली,
दोस्सर, स्वीप का खेलना।
वो कमरे पे टीन की छत,
उसपे बारिश का पड़ना।
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वो गाँव मेरा, कहाँ खो गया,
वो शहर जैसा, क्यों हो गया।
कोई लौटा दो मेरा वो गाँव,
बचपन में ले चलो मुझे।
मेरा बीत गया जी समय,
जिंदगी की हो गई शाम।
थोड़ा ही बचा है, समय,
ये क्या.... हो गया।
भगवान् क्षमा करे मुझे,
क्यों रो रहा हूँ मैं।
ये मैंने क्या खो दिया,
मैं तो लुट गया भाई।
सच में, बदल गया है गाँव,
ये है, कड़वी सच्चाई।
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राजेन्द्र को उसका बचपन,
याद बहुत ही आता।
वो बहुत ही है, दुःखी,
उससे और नहीं लिखा जाता।
शब्द अब, खुद ही,
अपने आप, ले लें विराम।
वो तो लेगा, सिर्फ, राम का नाम।
जै श्रीराम, जै श्रीराम, जै जै श्रीराम।
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कविता: राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
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