कविता: नारद की चिन्ता
छीर सागर था, विशाल।
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उस पर, शेषनाग की,
शैया थी, महान।
जिस पर, विराजमान् थे,
हम सब के श्रेष्ठ,
सृष्ठि के पालनहार,
राजेन्द्र, विष्णु, भगवान्।
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नारद मुनी पहुँचे वहाँ,
और बोले,
कर के दंडवत, प्रणाम।
हे प्रभु, ये तो बताओ,
धरती पर इंसान,
क्यों है इतना, परेशान।
क्यों नहीं मांग लेता,
आपसे कोई,
खुश होने का, वरदान।
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प्रभु बोले, सुन नारद,
तू है बहुत, भोला।
क्या तूने कभी,
इंसान का मन भी, टटोला।
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वो नहीं है दुःखी,
इस बात से क़ि,
उसके पास,
नहीं है कोई, खुशी।
वो तो है परेशान,
इस बात से क़ि,
उसका पडौसी,
क्यों है, सुखी।
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उसे, किसी पराये की,
सफलता नहीं है, भाती।
किसी की प्रशंशा भी,
नहीं सुनी, जाती।
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नारद बोले प्रभु,
बताओ कुछ ऐसा, उपाय।
ताकि, भटका हुवा इंसान,
तुरंत सुधर, जाय।
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प्रभु बोले, सुन नारद,
इंसान नहीं है, भोला।
उसने ओढ़ा है, घमंड
और ईर्ष्या का, चोला।
------------------------------ ------------------
गर् वो, इन को उतार कर,
दुसरे की सफलता
की प्रशंशा में,
दो शब्द दे, बोल।
तो सचमुच मेरी,
शैया भी जायेगी, डोल।
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और तभी उसे,
खुशियाँ भी मिलेंगी, अनमोल।
और मैंने तो, खुद ही,
ये रक्खा है, बोल।
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क़ि, जैसा तू करेगा, इंसान।
वैसा ही, फल देगा, भगवान्।
****************************** *
तो, नारद की ये, वाणी।
आज़ राजेन्द्र की.......!, जुबानी।
------------------------------ ------------------
सुन लो सभी कान, लगाय।
ये ही है, भगवान् का,
सबसे सरल, उपाय।
------------------------------ ------------------
ग़र करोगे, दूसरों की,
तारीफ़ राजेन्द्र,
तो खुद भी,
क़ाबिले-तारीफ़ बन, जाओगे।
सफ लता के साथ,
खुशियाँ भी ढेरों, पाओगे।
------------------------------ ------------------
मिलेगी, मन की शांति,
और पाओगे, आराम।
प्रेम से बोलो जै सिया, राम।
****************************** *
कविता:- राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
छीर सागर था, विशाल।
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उस पर, शेषनाग की,
शैया थी, महान।
जिस पर, विराजमान् थे,
हम सब के श्रेष्ठ,
सृष्ठि के पालनहार,
राजेन्द्र, विष्णु, भगवान्।
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नारद मुनी पहुँचे वहाँ,
और बोले,
कर के दंडवत, प्रणाम।
हे प्रभु, ये तो बताओ,
धरती पर इंसान,
क्यों है इतना, परेशान।
क्यों नहीं मांग लेता,
आपसे कोई,
खुश होने का, वरदान।
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प्रभु बोले, सुन नारद,
तू है बहुत, भोला।
क्या तूने कभी,
इंसान का मन भी, टटोला।
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वो नहीं है दुःखी,
इस बात से क़ि,
उसके पास,
नहीं है कोई, खुशी।
वो तो है परेशान,
इस बात से क़ि,
उसका पडौसी,
क्यों है, सुखी।
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उसे, किसी पराये की,
सफलता नहीं है, भाती।
किसी की प्रशंशा भी,
नहीं सुनी, जाती।
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नारद बोले प्रभु,
बताओ कुछ ऐसा, उपाय।
ताकि, भटका हुवा इंसान,
तुरंत सुधर, जाय।
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प्रभु बोले, सुन नारद,
इंसान नहीं है, भोला।
उसने ओढ़ा है, घमंड
और ईर्ष्या का, चोला।
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गर् वो, इन को उतार कर,
दुसरे की सफलता
की प्रशंशा में,
दो शब्द दे, बोल।
तो सचमुच मेरी,
शैया भी जायेगी, डोल।
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और तभी उसे,
खुशियाँ भी मिलेंगी, अनमोल।
और मैंने तो, खुद ही,
ये रक्खा है, बोल।
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क़ि, जैसा तू करेगा, इंसान।
वैसा ही, फल देगा, भगवान्।
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तो, नारद की ये, वाणी।
आज़ राजेन्द्र की.......!, जुबानी।
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सुन लो सभी कान, लगाय।
ये ही है, भगवान् का,
सबसे सरल, उपाय।
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ग़र करोगे, दूसरों की,
तारीफ़ राजेन्द्र,
तो खुद भी,
क़ाबिले-तारीफ़ बन, जाओगे।
सफ लता के साथ,
खुशियाँ भी ढेरों, पाओगे।
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मिलेगी, मन की शांति,
और पाओगे, आराम।
प्रेम से बोलो जै सिया, राम।
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कविता:- राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
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