कविता: विनम्रता और अभिमान
सारांश:
दिमाग़ी बीमारी होती है, अभिमान।
विनम्रता की औषधी,
से ही होता है तब,
इस बीमारी का, निदान।
------------------------------ ------------------
ज्यों-ज्यों अभिमान का,
पत्थर लगता है, फूटने।
त्यों-त्यों विनम्रता का,
फूल तब राजेन्द्र,
लगता है फलने, फूलने।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
विनम्रता और अभिमान पर लिखी गयी
प्रस्तुत है मेरी ये रचना:
राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
****************************** *
विनम्रता और अभिमान
अभिमान नरक का द्वार है,
अभिमान न करयो, कोय।
अभी तो नाव समुद्र में,
ना जाने कब क्या, होय।
------------------------------ ------------------
विनम्रता धरम का मूल है,
विनम्रता न तज़यो, कोय।
कुंजी है ये धैर्य की,
भगवान् भी बस में, होय।
------------------------------ ------------------
जैन मुनी गुरु एक हैं,
सूर्य समान,
तरुण है उनका, तेज़।
सागर समान गहरा है,
व्यक्तित्व उनका,
प्रवचनों में उनके,
समाये होते गहरे,
सांसारिक गूढ़, भेद।
------------------------------ ------------------
अपने बोलों के तरकस से,
तीखे तीरों को,
निकाल, समाज को,
राह दिखाते,
समाज सुधारक हैं वो, आज़ के।
क्रांतिकारी संत कहलाते वो, राष्ट्र के।
------------------------------ ------------------
इन्ही श्रद्धेय मुनी गुरू,
श्री तरुण सागर,
महाराज जी की,
सुन लो सभी एक,
बात गूढ़ ज्ञान, की।
बात है ये सारी विनम्रता,
और अभिमान, की।
------------------------------ ------------------
दो दोस्तों में,
चल रहा था, वार्तालाप।
दोनों एक दुसरे को,
बता रहे थे,
अपने परिवार की, बात।
------------------------------ ------------------
एक ने दुसरे से कहा,
छोटा सा है हमारा, परिवार।
हम 2, हमारे 2, और,
मेरे माँ बाप,
रहते हमारे, साथ।
------------------------------ ------------------
दुसरे ने तब पहले से कहा,
मेरा भी है छोटा सा, परिवार।
हम 2, हमारे 2, और,
हम रहते,
अपने माँ बाप के, साथ।
------------------------------ ------------------
राजेन्द्र से अब सुन लो,
गुरू महाराज के,
कहे वो प्यारे, बोल।
दोनों दोस्तों द्वारा कही,
इन एक जैसी,
बातों के रहष्य को,
उन्होंने दिया, खोल।
दोनों बातों में छिपे,
भावार्थ को तब,
फूल और पत्थर से,
राजेन्द्र, दिया, तोल।
****************************** *
कविता के अंत में अब,
राजेन्द्र की भी,
हो जावे एक बात, निराली।
गुरु मुनी द्वारा कही,
विनम्रता के फूल,
और अभिमान के,
राजेन्द्र, पत्थर, वाली।
------------------------------ ------------------
पहली में बेटे के अभिमान,
का दिखता है बोल, बाला।
तो दूसरी में बेटे ने,
विनम्रता से,
माँ बाप का सर,
ऊँचा कर, डाला।
------------------------------ ------------------
इतनी ही तो हैं बस,
दोनों में राजेन्द्र,
छिपी वो बातें, राज़ की।
विनम्रता और अभिमान,
ये 2 शब्द ही तो हैं,
जिनके बीच,
सिमटी है ये,
कलयुगी दुनिया, आज़ की।
श्रद्धा से जै बोलो अब,
उन्हीं श्री मुनी महा, राज़ की।
------------------------------ ------------------
जिनके प्रवचनों में,
छिपी होती बातें,
बड़े ही, ज्ञान की।
आज़ के लिए इतना ही,
बोलो जय सिया, राम की।
****************************** *
कविता: राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
सारांश:
दिमाग़ी बीमारी होती है, अभिमान।
विनम्रता की औषधी,
से ही होता है तब,
इस बीमारी का, निदान।
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ज्यों-ज्यों अभिमान का,
पत्थर लगता है, फूटने।
त्यों-त्यों विनम्रता का,
फूल तब राजेन्द्र,
लगता है फलने, फूलने।
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विनम्रता और अभिमान पर लिखी गयी
प्रस्तुत है मेरी ये रचना:
राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
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विनम्रता और अभिमान
अभिमान नरक का द्वार है,
अभिमान न करयो, कोय।
अभी तो नाव समुद्र में,
ना जाने कब क्या, होय।
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विनम्रता धरम का मूल है,
विनम्रता न तज़यो, कोय।
कुंजी है ये धैर्य की,
भगवान् भी बस में, होय।
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जैन मुनी गुरु एक हैं,
सूर्य समान,
तरुण है उनका, तेज़।
सागर समान गहरा है,
व्यक्तित्व उनका,
प्रवचनों में उनके,
समाये होते गहरे,
सांसारिक गूढ़, भेद।
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अपने बोलों के तरकस से,
तीखे तीरों को,
निकाल, समाज को,
राह दिखाते,
समाज सुधारक हैं वो, आज़ के।
क्रांतिकारी संत कहलाते वो, राष्ट्र के।
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इन्ही श्रद्धेय मुनी गुरू,
श्री तरुण सागर,
महाराज जी की,
सुन लो सभी एक,
बात गूढ़ ज्ञान, की।
बात है ये सारी विनम्रता,
और अभिमान, की।
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दो दोस्तों में,
चल रहा था, वार्तालाप।
दोनों एक दुसरे को,
बता रहे थे,
अपने परिवार की, बात।
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एक ने दुसरे से कहा,
छोटा सा है हमारा, परिवार।
हम 2, हमारे 2, और,
मेरे माँ बाप,
रहते हमारे, साथ।
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दुसरे ने तब पहले से कहा,
मेरा भी है छोटा सा, परिवार।
हम 2, हमारे 2, और,
हम रहते,
अपने माँ बाप के, साथ।
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राजेन्द्र से अब सुन लो,
गुरू महाराज के,
कहे वो प्यारे, बोल।
दोनों दोस्तों द्वारा कही,
इन एक जैसी,
बातों के रहष्य को,
उन्होंने दिया, खोल।
दोनों बातों में छिपे,
भावार्थ को तब,
फूल और पत्थर से,
राजेन्द्र, दिया, तोल।
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कविता के अंत में अब,
राजेन्द्र की भी,
हो जावे एक बात, निराली।
गुरु मुनी द्वारा कही,
विनम्रता के फूल,
और अभिमान के,
राजेन्द्र, पत्थर, वाली।
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पहली में बेटे के अभिमान,
का दिखता है बोल, बाला।
तो दूसरी में बेटे ने,
विनम्रता से,
माँ बाप का सर,
ऊँचा कर, डाला।
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इतनी ही तो हैं बस,
दोनों में राजेन्द्र,
छिपी वो बातें, राज़ की।
विनम्रता और अभिमान,
ये 2 शब्द ही तो हैं,
जिनके बीच,
सिमटी है ये,
कलयुगी दुनिया, आज़ की।
श्रद्धा से जै बोलो अब,
उन्हीं श्री मुनी महा, राज़ की।
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जिनके प्रवचनों में,
छिपी होती बातें,
बड़े ही, ज्ञान की।
आज़ के लिए इतना ही,
बोलो जय सिया, राम की।
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कविता: राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
बहुत खूब
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